Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 1 Solutions – श्रम विभाजन और जाति प्रथा

Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 1 – श्रम विभाजन और जाति प्रथा: विशेषज्ञ समाधान
यहाँ कक्षा 10 के छात्रों के लिए बिहार बोर्ड हिंदी पाठ्यक्रम के अध्याय 1, “श्रम विभाजन और जाति प्रथा”, की सम्पूर्ण प्रश्नोत्तर सामग्री प्रस्तुत की गई है। यह मार्गदर्शिका विषय विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई है, जो छात्रों को पाठ के मूलभूत विचारों, सामाजिक संरचना में जाति प्रथा के प्रभाव, और श्रम के विभाजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने में सहायता प्रदान करती है।

पाठ्य सामग्री की विशेषताएँ:

  • विस्तृत व्याख्याएँ: प्रत्येक प्रश्न के उत्तर सरल भाषा और उदाहरणों के साथ दिए गए हैं।
  • परीक्षोपयोगी अभ्यास: महत्वपूर्ण लघु एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों का संकलन।
  • मुख्य बिंदु: पाठ के सारांश और शब्दावली की स्पष्ट व्याख्या।
  • मूल्यांकन सामग्री: अभ्यास हेतु वस्तुनिष्ठ एवं विश्लेषणात्मक प्रश्न।

 

 

प्रश्न 1. लेखक किस व्यंग्य की ओर इशारा करते हैं? इसकी प्रकृति क्या है?
उत्तर: लेखक आधुनिकता के दौर में जाति प्रथा के बने रहने को एक विरोधाभास मानते हैं। व्यंग्य यह है कि आज का समाज श्रम विभाजन को कार्यदक्षता का आधार मानता है, लेकिन जातिवादी समूह इसी सिद्धांत को विकृत करके जाति व्यवस्था को सही साबित करने में लगे हैं। यहाँ श्रम विभाजन का वैज्ञानिक तर्क सामाजिक पूर्वाग्रहों को बनाए रखने के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है।


प्रश्न 2. जाति प्रथा के समर्थक इसके पक्ष में कौन-से युक्तियाँ प्रस्तुत करते हैं?
उत्तर: जाति प्रथा के पोषकों का मुख्य तर्क है कि यह व्यवस्था “सामाजिक विशेषज्ञता” को बढ़ावा देती है। उनका दावा है कि जन्मजात पेशा अपनाने से व्यक्ति अपने कार्य में निपुण हो जाता है, जिससे समाज को दीर्घकालिक लाभ मिलता है। साथ ही, वे इसे सामाजिक स्थिरता और संस्कृति के संरक्षण का माध्यम भी बताते हैं।


प्रश्न 3. जाति प्रथा के समर्थन में दिए गए तर्कों के विरुद्ध लेखक की मुख्य आलोचनाएँ क्या हैं?
उत्तर: लेखक के अनुसार, जाति प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह मानवीय स्वतंत्रता को कुचलती है। यह व्यवस्था व्यक्ति की रुचि, क्षमता और परिस्थितियों की अनदेखी करके उसे जन्म से ही एक पेशे में बाँध देती है। इससे न केवल व्यक्ति का विकास अवरुद्ध होता है, बल्कि समाज भी प्रतिभाओं के उचित उपयोग से वंचित रह जाता है। साथ ही, यह प्रथा आर्थिक असमानता और सामाजिक विषमताओं को भी जन्म देती है।


प्रश्न 4. भारतीय समाज में जाति को श्रम विभाजन का स्वाभाविक स्वरूप क्यों नहीं माना जा सकता?
उत्तर: श्रम विभाजन का स्वाभाविक आधार योग्यता और व्यक्तिगत चयन होना चाहिए, जबकि जाति प्रथा इसे जन्म से जोड़कर एक अमानवीय संरचना खड़ी करती है। यह व्यवस्था लोगों को उनकी क्षमताओं के अनुसार कार्य चुनने का अवसर नहीं देती, बल्कि उन्हें जन्मजात पेशे तक सीमित कर देती है। इस प्रकार, यह समाज में गतिशीलता के बजाय जड़ता पैदा करती है और वैज्ञानिक श्रम विभाजन के सिद्धांतों के विपरीत कार्य करती है।

 

प्रश्न 5. जाति व्यवस्था भारत में बेरोजगारी का प्रत्यक्ष स्रोत क्यों मानी जाती है?
उत्तर: जाति प्रथा आर्थिक गतिशीलता को अवरुद्ध करके बेरोजगारी को जन्म देती है। यह व्यवस्था व्यक्तियों को उनकी रुचि या बदलते बाजार के अनुसार नए कौशल सीखने से रोकती है। उदाहरण के लिए, एक युवा डिजिटल मार्केटिंग में रुचि रखता है, लेकिन जन्मजात पेशा कृषि होने के कारण वह स्वयं को सीमित पाता है। इस प्रकार, यह प्रणाली कुशल श्रम की कमी और रोजगार के अवसरों के असंतुलन को बढ़ावा देती है, जो आधुनिक अर्थव्यवस्था की मांगों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाती।


प्रश्न 6. लेखक के अनुसार, जातिवाद गरीबी से भी अधिक विनाशकारी क्यों है?
उत्तर: लेखक की दृष्टि में, जाति प्रथा मानसिक गुलामी का प्रतीक है, जो व्यक्ति की सोच और आत्मविश्वास को कुंद कर देती है। गरीबी एक आर्थिक स्थिति है, लेकिन जातिवाद सामाजिक पहचान को जन्म से ही दोषपूर्ण बना देता है। यह व्यक्ति को न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी दबाती है, जिससे समाज में सृजनात्मकता का ह्रास और सामूहिक प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है।


प्रश्न 7. पाठ के आधार पर जाति प्रथा के तीन प्रमुख दुष्प्रभावों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:

  1. सामाजिक असमानता का संस्थागतीकरण: जाति प्रथा समाज को ऊँच-नीच की दीवारों में बाँटकर सामूहिक एकता को नष्ट करती है।
  2. व्यक्तिगत पहचान का दमन: यह व्यवस्था व्यक्ति को उसकी प्रतिभा या महत्वाकांक्षाओं के बजाय जन्म से मिले पेशे से परिभाषित करती है, जिससे आत्म-विकास का मार्ग अवरुद्ध होता है।
  3. आर्थिक संकट का चक्र: पारंपरिक पेशों में अत्यधिक जनसंख्या और नवीन क्षेत्रों में श्रम की कमी से अर्थव्यवस्था असंतुलित हो जाती है। उदाहरणार्थ, कृषि क्षेत्र में अधिक श्रमिक होने से बेरोजगारी, जबकि तकनीकी क्षेत्रों में कुशल कर्मियों की कमी।

प्रश्न 8. डॉ. अंबेडकर के अनुसार, एक सार्थक लोकतंत्र की स्थापना के लिए किन मूलभूत सिद्धांतों की आवश्यकता है?
उत्तर: डॉ. अंबेडकर के चिंतन में लोकतंत्र की सफलता हेतु तीन आधारभूत स्तंभ आवश्यक हैं:

  • सामाजिक लोचशीलता: समाज में व्यक्तियों को अपनी स्थिति बदलने का अवसर मिलना चाहिए। जाति प्रथा जैसी जड़ संरचनाएँ इस लोच को नष्ट कर देती हैं।
  • नैतिक समानता का बोध: कानूनी अधिकारों से परे, समाज के प्रत्येक सदस्य को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार होना चाहिए।
  • सहभागिता की संस्कृति: लोकतंत्र केवल मतदान तक सीमित न हो। इसमें सभी वर्गों को निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी मिलनी चाहिए। उनका मानना था कि बिना सामाजिक न्याय के राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा है।


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